लेखक: ताराचन्द खोयड़ावाल, संस्थापक मजदूर विकास फाउंडेशन, समाजसेवी, आरटीआई कार्यकर्ता व प्रगति न्यूज़ के संपादक
11 अप्रैल को हम उस महामानव की जयंती मना रहे हैं, जिसने भारतीय समाज की बुनियादी विसंगतियों को चुनौती दी और समता, शिक्षा और न्याय का रास्ता दिखाया। महात्मा ज्योतिबा फुले ना सिर्फ एक समाज सुधारक थे, बल्कि वे सामाजिक क्रांति के प्रणेता, दलितों, पिछड़ों और महिलाओं के हक़ की लड़ाई लड़ने वाले एक महान विचारक भी थे।
शिक्षा: सामाजिक बदलाव का मूलमंत्र
ज्योतिबा फुले का मानना था कि जब तक समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को शिक्षा नहीं मिलेगी, तब तक वास्तविक स्वतंत्रता संभव नहीं। उन्होंने 1848 में पुणे में देश का पहला महिला विद्यालय खोला और अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को पहली महिला शिक्षिका के रूप में खड़ा किया। यह उस युग में एक साहसिक कदम था, जब महिलाओं को शिक्षा से दूर रखा जाता था।
सत्यशोधक समाज: ब्राह्मणवाद के खिलाफ सामाजिक आंदोलन
1873 में फुले ने "सत्यशोधक समाज" की स्थापना की, जो जातिवादी ढांचे, धार्मिक पाखंड और शोषण के खिलाफ एक क्रांतिकारी कदम था। उन्होंने कहा था – "जो अंधविश्वास में जीते हैं, वे कभी आज़ाद नहीं हो सकते।" उनकी इस विचारधारा ने आने वाली पीढ़ियों को दिशा दी।
महिला सशक्तिकरण के अग्रदूत
महात्मा फुले ने बाल विवाह, सती प्रथा और स्त्रियों के साथ होने वाले अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाई। वे विधवाओं के पुनर्विवाह के समर्थक थे और उन्होंने स्त्री को समाज का सम्माननीय और शिक्षित अंग बनाने के लिए जीवन भर संघर्ष किया।
आज के संदर्भ में फुले के विचार
आज भी जब हम जातिगत भेदभाव, लिंग असमानता और शिक्षा में असंतुलन देखते हैं, तब ज्योतिबा फुले के विचार हमें समाधान का रास्ता दिखाते हैं। वे हमें सिखाते हैं कि बदलाव सिर्फ कानून से नहीं, सोच और व्यवहार से आता है।
महात्मा फुले सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचार हैं – जो हर उस इंसान को ताकत देते हैं जो सामाजिक न्याय, समानता और मानवता के लिए काम कर रहा है। उनकी जयंती पर हम सभी को उनके दिखाए रास्ते पर चलने का संकल्प लेना चाहिए।
महात्मा फुले को कोटि-कोटि नमन!